स्वास स्वास हरिभजन होवै ऐसो मेरो सुभाव कहाँ
भटक रहूँ जगत विषयन माँहि तव चरणन लगाव कहाँ
रस चाखुं जगत के विरथा नाम रस मोहे अनुराग कहाँ
विष्ठा को कूकर अति कामी तव चरण पुष्प को पराग कहाँ
जन्मों ते ही जड़ बुद्धि होय प्रेम पथिक सा मेरो राग कहाँ
युगल चरणन की सेवा मिले कबहुँ बाँवरी तेरो भाग कहाँ
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