Monday, March 13, 2017

शिक्षाष्टकम्



श्री शिक्षाष्टकम्
भगवान श्री गौरसुन्दर चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को श्रीकृष्ण-तत्त्व पर ग्रन्थों की रचना करने की आज्ञा दी, जिसका पालन उनके अनुयायी आज तक कर रहे हैं । वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा जिस दर्शन कि शिक्षा दी गयी उस पर हुयी व्याख्याएं परम विस्तृत एवं सुदृढ़ हैं ।
यद्यपि भगवान चैतन्य महाप्रभु अपने युवावस्था में ही परम विद्वान के रूप में विख्यात थे, किन्तु उन्होंने हमें केवल आठ श्लोक ही प्रदान किये जिन्हे “शिक्षाष्टक” कहते हैं । इन आठ श्लोकों में श्रीमन्महाप्रभु ने अपने प्रयोजन को स्पष्ट कर दिया है । इन परम मूल्यवान प्रार्थनाओं का यहाँ मूलरूप एवं अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है ।
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥
अनुवाद: हे भगवन ! आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है-कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है । प्रभु ! आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
अनुवाद: स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥
अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥४॥
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥
अनुवाद: हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ॥५॥
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥
अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ॥६॥
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥७॥
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥

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Friday, March 10, 2017

बाँवरी तेरो भाग कहाँ



स्वास स्वास हरिभजन होवै ऐसो मेरो सुभाव कहाँ
भटक रहूँ जगत विषयन माँहि तव चरणन लगाव कहाँ
रस चाखुं जगत के विरथा नाम रस मोहे अनुराग कहाँ
विष्ठा को कूकर अति कामी तव चरण पुष्प को पराग कहाँ
जन्मों ते ही जड़ बुद्धि होय प्रेम पथिक सा मेरो राग कहाँ
युगल चरणन की सेवा मिले कबहुँ बाँवरी तेरो भाग कहाँ



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Thursday, March 9, 2017

गुरु कौन है और कहाँ मिलेंगे ?



गुरु कौन है और कहाँ मिलेंगे ?
जीव का वास्तविक स्वरूप यही है की वह श्रीकृष्ण का सनातन दास है–
जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास (चैतन्य चरितामृत)|
जिनकी वाणी में जीव को उसके स्वरूप-धर्म (कृष्ण-दासत्व) में प्रतिष्ठित करने की गुरुता (क्षमता) है– वही ‘गुरु’ हैं|
आध्यात्मिक जगत में प्रमुखतः चार प्रकार के गुरु माने जाते हैं–
(१) दीक्षा-गुरु– जो वैदिक विधि से शिष्य को वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं
(२) शिक्षा-गुरु– जो सत्संग के द्वारा भक्ति का उपदेश प्रदान करते हैं
(३) चैत्य-गुरु– सभी जीवों के ह्रदय में स्थित परमात्मा ही सब को अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान करते हैं– वे ही सबके चैत्य-गुरु हैं|
(४) पथ-प्रदर्शक गुरु– वे जो हमें यथार्थ गुरु का आश्रय दिलवाते हैं|
गुरु कैसे होने चाहियें?
चैतन्य चरितामृत में आता है–
किब विप्र किब न्यासी शूद्र केने नय ।
जेइ कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेइ गुरु हय ॥
चाहे कोई ब्राह्मण हो, संन्यासी हो, अथवा किसी ने शूद्रों के कुल में ही क्यों जन्म ग्रहण किया हो– किन्तु यदि वह व्यक्ति कृष्णतत्त्व के अनुभवी हैं तो वह मनुष्यमात्र के गुरु हैं|
अपना उद्धार चाहने वाले सभी व्यक्ति चार वैष्णव सम्प्रदायों में से किसी एक में दीक्षा ले सकते हैं क्योंकि इन्हीं चार सम्प्रदायों में ही वैदिक ज्ञान तथा भक्ति अपने यथार्थ स्वरूप में प्रवाहित होती है–
(१) ब्रह्म सम्प्रदाय (२) श्रीसंप्रदाय (३) रूद्र संप्रदाय (४) कुमार संप्रदाय
इसी लिए गर्ग संहिता (१०/१६/२३-२६) में इस प्रकार का वर्णन आता है :
वामनश्च विधि शेषः सनको विष्णुवाक्यतः|
धर्मार्थ हेतवे चैते भविष्यन्ति द्विजः कलौ||
विष्णुस्वामी वामनान्षतथा मध्वस्तु ब्राह्मणः||
रामानुजस्तु शेषांश निम्बादित्य सनकस्य च|
एते कलौ युगे भाव्यः सम्प्रदाय प्रवर्तकः|
संवत्सरे विक्रम चत्वारः क्षिति पावन:||
सम्प्रदाय विहीना ये मंत्रास्ते निष्फल: स्मृत:|
तस्माच्च गमनंह्यSस्ति सम्प्रदाय नरैरपि||
अर्थात – ‘ भगवान् वामन, ब्रह्मा जी, अनंत-शेष एवं सनकादी चार कुमार भगवान् विष्णु के आदेश से कलि युग में ब्राह्मणों के कुल में जन्म लेंगे| विष्णुस्वामी वामन के अंश से, मध्वाचार्य ब्रह्मा जी के अंश से, रामानुजाचार्य अनंत-शेष के अंश से एवं निम्बादित्य सनक के अंश से कलियुग में प्रकट हो चार वैष्णव-सम्प्रदायों के प्रवर्तक होंगे| यह सभी विक्रमी संवत के प्रारम्भ से ही चारों दिशाओं को पवित्र कर देंगे| कलियुग में जो मनुष्य इन चार वैष्णव-सम्प्रदायों में दीक्षा से विहीन होते हैं– उनके द्वारा जपे हुए मन्त्र इत्यादि सभी निष्फल होते हैं| अत: कलियुग में अपना कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को इन्हीं चार सम्प्रदायों में मन्त्र-दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए|’
मध्यकाल में बंगाल को गौड़देश कहा जाता था| चैतन्य महाप्रभु तथा उनके अधिकांश पार्षदों नें गौड़देश में ही अवतार लिया| इसीलिये चैतन्य महाप्रभु की आराधना करने वालों को सामान्यत: गौड़ीय वैष्णव कहा जाता है| गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय ब्रह्म सम्प्रदाय के अंतर्गत आता है|
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Friday, February 24, 2017

महाशिवरात्रीची कथा


The legend of King Chitrabhanu is held to be a main reason of the origin of the fasting tradition during Maha Shivaratri festival. The story can be found in the Shanti Parva (chapter) of the Hindu epic Mahabharata where the old Bhishma, whilst resting on the bed of arrows and discoursing on Dharma (righteousness), refers to the observance of Maha Shivaratri by King Chitrabhanu. The story tells how the mighty ancient ruler Chitra Bhanu of the Ikshvaku dynasty, king of the whole of Jambu-Dwipa (ancient name for India), was once observing a fast with his wife when the renowned sage Ashtavakra came on a visit to his court with some pupils in tow. Finding the king fasting, Ashtavakra asked him the reason. King Chitrabhanu explained that he had a gift of remembering the incidents of his past birth, and in his earlier life he had been Suswara, a hunter in Varanasi. His only livelihood was to kill and sell birds and animals. One day, when out searching for a game, he shot a deer, but was overtaken by darkness and climbed into a bel tree for safety. Thinking that his wife and children were without food and waiting anxiously for his return, he began to cry bitterly. To his utter dismay, he also found his canteen leaking water. The water, together with bel leaves from the tree, fell onto a Shiva-linga (a symbol for the worship of Lord Shiva) placed at the foot of the tree. The next morning he sold the deer and bought food for his family. As he and his family was sitting down to have their food, a stranger arrived to his doorstep requesting for food. True to the ancient custom of Hindu hospitality, Suswara served the food first to the guest and then had his own. He lived for many years without learning that he had by chance fasted on the day of Shiva-Ratri, but when the hour of death drew near two messengers from Lord Shiva appeared to conduct his soul to paradise. It was then that he learnt that he was being rewarded for having observed the fast on that auspiscious day and night. The messengers told him that the leaves he had dropped by chance on the Lingam, was in imitation of its ritual worship. Also, the water from his leaky canteen had washed the Lingam (also a ritual action), and he had fasted all day and all night. Thus, he had unconsciously worshipped the Lord during the night of Shivaratri and had earned great merit by the observance. As a reward, his soul granted place in various heavens until it reached the highest, and he was afterwards reborn in high rank as a king and was specially favoured by being given the knowledge of his former life. Thus the Maha Shivaratri fast is said to have been first observed by Chitra Bhanu and the custom is still practiced in India. On Maha Shivaratri, devotees observe fast, offer fruits, flowers and bel leaves on Shiva Linga and keep vigil all night in honour of Lord Shiva.


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http://www.theholidayspot.com/shivratri/legends_of_shivratri.htm#RT5gYyDLP7O83k07.99

Friday, February 10, 2017

बासरी

बासरी ...


बासरी तयार करण्यासाठी लागणारा बांबू हा तिथी पाहून तोडतात.
पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी या तिथींना बांबू तोडला तर त्याला हमखास कीड लागते, असं बासरी तयार करणारे सांगतात.
त्याचं कारण म्हणजे या तिथींमध्ये शेवटी 'मी' येतो. याच 'मी'पणाच्या अहंकारातून कार्यनाश होतो आणि बासरी टिकत नाही, असा समज आहे.
कृष्णाचं आवडतं वाद्य बासरी. एकदा कृष्णाच्या सगळ्या सख्या, गोपी बासरीवर चिडल्या आणि म्हणाल्या,आम्ही त्या कृष्णाची एवढी स्तुती करतो, त्याच्या आजूबाजूला वावरतो,पण तो आम्हाला साधा भावही देत नाही.
तू तर एवढी साधी; ना रूप ना काही.पण तो तुला सतत ओठांशी धरून असतो.
तू अशी काय जादू केली आहेस त्याच्यावर? बासरी हसली आणि म्हणाली, 'तुम्ही माझ्यासारख्या व्हा,मग कृष्ण तुम्हालाही जवळ घेईल.'
अर्थ न कळून गोपींनी बासरीकडे पाहिलं. बासरी पुढे म्हणाली, 'मी अगदी सरळ आहे; ना एखादी गाठ, ना एखादं वळण. मी पोकळ आहे. त्या पोकळीतून माझ्यातला अहंकार गळून पडलाय.
माझ्या अंगावरच्या सहा छिंद्रातून काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर हे रिपू मी काढून टाकले आहेत.
मला स्वत:चा आवाजही नाही. माझ्या सख्यानं फुंकर मारली तरच मी बोलते.
तो जशी फुंकर मारतो तशी मी बोलते.' गोपी निरुत्तर झाल्यl.
अहंकार रहित शरीर ही श्रीहरीची बासरी होय.

Thursday, December 1, 2016

द्वैत अद्वैत साधक भाव


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[ स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
शरणागति तत्त्व-- 2⃣
शरणागत होते ही, सबसे प्रथम अहंता परिवर्तित होती है । 'शरणागति' भाव है, कर्म नहीं । भाव और कर्म में यही भेद है कि भाव वर्तमान में ही फल देता है और कर्म भविष्य में । भावकर्ता ‘भाव’ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकता है, किन्तु कर्म संगठन से होता है । संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, क्योंकि अनेक निर्बलताओं का समूह ही वास्तव में 'संगठन' है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से, अपने से भिन्न की सहायता की खोज करना 'संगठन' है ।
शरणागति दो- प्रकार की होती है- भेदभाव की तथा अभेदभाव की । भेदभाव की शरणागति शरण्य अर्थात् प्रेमपात्र की स्वीकृति मात्र से ही हो सकती है, किन्तु अभेद-भाव की शरणागति शरण्य के यथार्थ-ज्ञान से होती है । अभेद-भाव का शरणागत, शरणागत होने से पूर्व ही निर्विषय हो जाता है, केवल लेशमात्र अहंता शेष रहती है, जो शरण्य की कृपा से निवृत्त हो जाती है । भेदभाव का शरणागत, शरणागत होते ही अहंता का परिवर्तन कर देता है अर्थात् जो अनेक का था वह एक का होकर रहता है ।
शरणागत के हृदय में यह भाव, कि मैं उनका हूँ, निरन्तर सद्भावपूर्वक रहता है । यह नियम है कि जो जिसका होता है, उसका सब कुछ उसी का होता है तथा वह निरन्तर उसी के प्यार की प्रतीक्षा करता है । प्रेमपात्र के प्यार की अग्नि ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों शरणागत की अहंता उसी प्रकार तद्रूप होती जाती है, जिस प्रकार लकड़ी अग्नि से अभिन्न होती जाती है । अहंता के समूल नष्ट होने पर भेदभाव का शरणागत भी अभेद-भाव का शरणागत हो जाता है ।
भेदभाव का शरणागत भी शरण्य से किसी भी काल में विभक्त नहीं होता, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पिता के घर भी पति से विभक्त नहीं होती ।
क्रमशः-
----- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 31) ।

Wednesday, October 26, 2016

तृणादपि सुनीचेन


( तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना)
★ महाप्रभु जी शिक्षाष्टक मे कहते है की साधक स्वयं को तृण से भी छोटा समझे--क्योकि जिस तरह धन आने पर मनुष्य को धन का मद हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को कभी कभी भजन करने का भी अहंकार हो जाता है-- वो स्वयं को भक्त ओर दुसरो को खुद से छोटा समझने लगता है--यानि भजन का अहंकार मनुष्य को हो जाता है-- ईस विषय मे महाप्रभु जी भक्तो के लिए कहते है की "तृणादपि सुनीचेन" अर्थात् खुद को तिनके से भी छोटा समझना चाहिये-- क्योकि तिनका भी अगर किसी की आंख मे चला जाए तो वो तिनका भी कष्ट देता है ईसलिए साधक खुद को तिनके से भी छोटा समझे --ओर भजन का अहंकार लेकर घुमने वाला साधक ये सोचता है की प्रभु उसकी साधना से बहुत प्रसन्न हो रहे होंगे --लेकिन साधक ये बात भूल जाता है की भगवान का प्रिय बनने के लिए अहंकार त्यागना पडता है-- भगवान गीता मे 12 अध्याय मे कहते है की जो भक्त अहंकार नही करता वो मुझे बहुत प्रिय है-- यानि भगवान उस भक्त से प्रेम करते है जो अहंकार नही करता--ईसलिए साधक के अंदर कभी भी अहंकार नही आना चाहिये-- जिस तरह वृक्ष पर फल आने पर वृक्ष झुक जाता है उसी प्रकार भजन करने वाले को भी हमेशा झुककर रहना चाहिये--किसी दुसरे साधक के भाव को देखकर द्वेष भी नही करना चाहिये क्योकि भगवान ये भी कहते है की जो दुसरो से द्वेष नही करता वो भक्त मुझे प्रिय है--भगवान भक्त मे जिस स्वभाव को देखना चाहते है वैसा अगर भक्त बन जाए तो भगवान बहुत प्रसन्न होते है-- ईसलिए "तृणादपि सुनीचेन"--क्योकि अगर भगवान प्राण वायु बंद कर दे,भोजन पचाना बंद कर दे ,तो साधक भजन कैसे कर पाएगा-- भगवान की कृपा से ही भजन होता है- ओर फिर आगे महाप्रभु जी कहते है की " तरोरपि सहिष्णुना"- अर्थात् वृक्ष से भी बढकर सहनशील बनो-- अर्थात् जैसे वृक्ष पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता है उसी प्रकार चाहे कोई भी व्यक्ति भक्त का विरोध करे या गाली दे लेकिन भक्त को सहनशील बनकर दूसरो पर करुणा ही करनी चाहिये --एक प्रसंग पुज्य गुरुदेव सुनाया करते है की एक बार एक बिच्छू पानी मे डूब रहा था तो एक संत वहां से जा रहे थे तो उन संत की दृष्टि बिच्छु पर पडी-- संत के ह्रदय मे करुणा आई ओर उन संत ने उस बिच्छु को हाथ से बाहर निकाला--जैसे ही संत ने बिच्छु को बाहर निकाला तो बिच्छू ने उस संत के हाथ पर डंक मारा ओर तुरंत फिर से वो बिच्छू पानी मे गिर गया-- संत को फिर से करुणा आई ओर उन्होने दोबारा बिच्छू को बाहर निकाला ओर बाहर निकालते ही दोबारा बिच्छू ने डंक मारा-- तो एसा जब दस -बारह बार उस संत ने किया तो एक व्यक्ति उस संत के करीब आया ओर बोला की अरे बाबा,! ये बिच्छू आपको डंक मारता जा रहा है ओर आप ईसे बचाने मे लगे हो क्यो??
तो संत ने बहुत प्यारा जबाव दिया की भैया,ईसका स्वभाव डंक मारना है ओर मेरा स्वभाव करुणा करना है-- तो जब ये अपना स्वभाव नही छोड पा रहा तो मै अपना करुणा करने का स्वभाव कैसे छोड सकता हूं-- यानि साधक को दूनियावाले चाहे कितना भी गलत बोलें या विरोध करें लेकिन साधक को किसी के प्रति भी द्वेष नही लाना चाहिये-- भगवान गीता मे कहते है की " जो मान- अपमान ,,निन्दा -स्तुति,,सुख दुख दोनो मे समान भाव रखकर विचलित नही होता वो मेरा प्रिय भक्त है-- "निर्ममो निरंहकार समदु:खसु:ख क्षमी"
क्षमी अर्थात् क्षमावान बनना है--- उसके बाद महाप्रभु जी कहते है की " अमानिना मानदेन" अर्थात् स्वयं अमानी रहकर दुसरो को सम्मान देना चाहिये-- ईसी बात को भगवान भी उद्धव से ग्यारहवें स्कंध मे कहते है की "अमानी मानद:" अर्थात् सच्चे भक्त सम्मान पाने की ईच्छा नही रखते बल्कि दुसरो का सम्मान करने की भावना भक्तो मे होती है-- श्रीचैतन्यचरितामृत मे भी कहा गया की " उत्तम हइञा वैष्णव हबे निरभिमान---
जीवे सम्मान दिबे जानि कृष्ण अधिष्ठान"-- अर्थात् जो उत्तम वैष्णव होता है वो उत्तम होने पर भी खुद को सबसे छोटा समझता है(तृणादपि सुनीचेन)- ओर सबमे कृष्ण बैठे है ईसलिए ये भावना रखकर भक्त दुसरो का सम्मान भी करता है-- ईसलिए महाप्रभु जी कहते है की साधको मे ये चार गुण अवश्य होने चाहिये-- "तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना--
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:"- अर्थात् खुद को तृण से भी छोटा समझे,,वृक्ष से भी बढकर सहनशील बने ,स्वयं अमानी रहे ,ओर दुसरो का सम्मान करते हूए सदा हरि का कीर्तन करता रहे-- बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-- सद्गुरुदेव भगवान की जय-- जय जय श्री राधे 

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