( तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना)
★ महाप्रभु जी शिक्षाष्टक मे कहते है की साधक स्वयं को तृण से भी छोटा समझे--क्योकि जिस तरह धन आने पर मनुष्य को धन का मद हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को कभी कभी भजन करने का भी अहंकार हो जाता है-- वो स्वयं को भक्त ओर दुसरो को खुद से छोटा समझने लगता है--यानि भजन का अहंकार मनुष्य को हो जाता है-- ईस विषय मे महाप्रभु जी भक्तो के लिए कहते है की "तृणादपि सुनीचेन" अर्थात् खुद को तिनके से भी छोटा समझना चाहिये-- क्योकि तिनका भी अगर किसी की आंख मे चला जाए तो वो तिनका भी कष्ट देता है ईसलिए साधक खुद को तिनके से भी छोटा समझे --ओर भजन का अहंकार लेकर घुमने वाला साधक ये सोचता है की प्रभु उसकी साधना से बहुत प्रसन्न हो रहे होंगे --लेकिन साधक ये बात भूल जाता है की भगवान का प्रिय बनने के लिए अहंकार त्यागना पडता है-- भगवान गीता मे 12 अध्याय मे कहते है की जो भक्त अहंकार नही करता वो मुझे बहुत प्रिय है-- यानि भगवान उस भक्त से प्रेम करते है जो अहंकार नही करता--ईसलिए साधक के अंदर कभी भी अहंकार नही आना चाहिये-- जिस तरह वृक्ष पर फल आने पर वृक्ष झुक जाता है उसी प्रकार भजन करने वाले को भी हमेशा झुककर रहना चाहिये--किसी दुसरे साधक के भाव को देखकर द्वेष भी नही करना चाहिये क्योकि भगवान ये भी कहते है की जो दुसरो से द्वेष नही करता वो भक्त मुझे प्रिय है--भगवान भक्त मे जिस स्वभाव को देखना चाहते है वैसा अगर भक्त बन जाए तो भगवान बहुत प्रसन्न होते है-- ईसलिए "तृणादपि सुनीचेन"--क्योकि अगर भगवान प्राण वायु बंद कर दे,भोजन पचाना बंद कर दे ,तो साधक भजन कैसे कर पाएगा-- भगवान की कृपा से ही भजन होता है- ओर फिर आगे महाप्रभु जी कहते है की " तरोरपि सहिष्णुना"- अर्थात् वृक्ष से भी बढकर सहनशील बनो-- अर्थात् जैसे वृक्ष पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता है उसी प्रकार चाहे कोई भी व्यक्ति भक्त का विरोध करे या गाली दे लेकिन भक्त को सहनशील बनकर दूसरो पर करुणा ही करनी चाहिये --एक प्रसंग पुज्य गुरुदेव सुनाया करते है की एक बार एक बिच्छू पानी मे डूब रहा था तो एक संत वहां से जा रहे थे तो उन संत की दृष्टि बिच्छु पर पडी-- संत के ह्रदय मे करुणा आई ओर उन संत ने उस बिच्छु को हाथ से बाहर निकाला--जैसे ही संत ने बिच्छु को बाहर निकाला तो बिच्छू ने उस संत के हाथ पर डंक मारा ओर तुरंत फिर से वो बिच्छू पानी मे गिर गया-- संत को फिर से करुणा आई ओर उन्होने दोबारा बिच्छू को बाहर निकाला ओर बाहर निकालते ही दोबारा बिच्छू ने डंक मारा-- तो एसा जब दस -बारह बार उस संत ने किया तो एक व्यक्ति उस संत के करीब आया ओर बोला की अरे बाबा,! ये बिच्छू आपको डंक मारता जा रहा है ओर आप ईसे बचाने मे लगे हो क्यो??
तो संत ने बहुत प्यारा जबाव दिया की भैया,ईसका स्वभाव डंक मारना है ओर मेरा स्वभाव करुणा करना है-- तो जब ये अपना स्वभाव नही छोड पा रहा तो मै अपना करुणा करने का स्वभाव कैसे छोड सकता हूं-- यानि साधक को दूनियावाले चाहे कितना भी गलत बोलें या विरोध करें लेकिन साधक को किसी के प्रति भी द्वेष नही लाना चाहिये-- भगवान गीता मे कहते है की " जो मान- अपमान ,,निन्दा -स्तुति,,सुख दुख दोनो मे समान भाव रखकर विचलित नही होता वो मेरा प्रिय भक्त है-- "निर्ममो निरंहकार समदु:खसु:ख क्षमी"
क्षमी अर्थात् क्षमावान बनना है--- उसके बाद महाप्रभु जी कहते है की " अमानिना मानदेन" अर्थात् स्वयं अमानी रहकर दुसरो को सम्मान देना चाहिये-- ईसी बात को भगवान भी उद्धव से ग्यारहवें स्कंध मे कहते है की "अमानी मानद:" अर्थात् सच्चे भक्त सम्मान पाने की ईच्छा नही रखते बल्कि दुसरो का सम्मान करने की भावना भक्तो मे होती है-- श्रीचैतन्यचरितामृत मे भी कहा गया की " उत्तम हइञा वैष्णव हबे निरभिमान---
जीवे सम्मान दिबे जानि कृष्ण अधिष्ठान"-- अर्थात् जो उत्तम वैष्णव होता है वो उत्तम होने पर भी खुद को सबसे छोटा समझता है(तृणादपि सुनीचेन)- ओर सबमे कृष्ण बैठे है ईसलिए ये भावना रखकर भक्त दुसरो का सम्मान भी करता है-- ईसलिए महाप्रभु जी कहते है की साधको मे ये चार गुण अवश्य होने चाहिये-- "तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना--
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:"- अर्थात् खुद को तृण से भी छोटा समझे,,वृक्ष से भी बढकर सहनशील बने ,स्वयं अमानी रहे ,ओर दुसरो का सम्मान करते हूए सदा हरि का कीर्तन करता रहे-- बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-- सद्गुरुदेव भगवान की जय-- जय जय श्री राधे
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