दिव्य प्रेम राज्य की साधना का आरम्भ कैसे होता है❓
दम्भ, द्रोह, द्वेष, काम, लोभ और विषयासक्ति के त्याग से ही इस प्रेम मार्ग की साधना आरम्भ होती है । जिन महापुरुषो में दम्भादि छः दोष है और जो विषयो में आसक्त है अर्थात जिनका मन सुंदर रूप, बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ, मनोहर गंध, कोमल स्पर्श और सुरीले गायन पर रीझा रहता है, वे इस मार्ग पर नही चल सकते ।
त्यागी विरागी महज्जन ही इस प्रेमपथ के पथिक हो सकते है; क्योकि इस उपासना में दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश करना पड़ता है और वहा बिना गोपी भाव को प्राप्त किये किसी का प्रवेश हो नही सकता । एवं गोपी भाव की प्राप्ति विषयासक्त पुरुष को कदापि होनी सम्भव नही ।
जो विषय लोलुप भी है और अपने को श्री राधाकृष्ण का प्रेमी बतलाते है, वे या तो स्वयम् धोखे में है अथवा जान या अनजान में जगत को धोखा देना चाहते है ।
उपर्युक्त छः दोषो से बचकर और विषयासक्ति को त्यागकर निम्नलिखित रूप में साधना करनी चाहिये:
1) अपने को श्री राधा जी की अनुचरियो में एक तुच्छ अनुचरी मानना ।
2) श्री राधा जी की सेविकाओ की सेवा में ही अपना परम् कल्याण समझना ।
3) सदा यही भावना करते रहना की मै भगवान् की प्रियतमा श्री राधा जी की दसियों की दासी बनी रहूँ और श्री राधा कृष्ण के मिलन साधन के लिये विशेष रूप से यत्न कर सकूँ।
यह बहुत ही रहस्य का विषय है । इसलिये इस विषय को विशेष रूप से लिखना अनुचित है । इस मार्ग पर पैर रखना आग पर खेलना है । जो बिना इसका रहस्य समझे इस पथ में प्रवेश करना चाहता है, वह गिर जाता है ।
जिसके हृदय में तनिक सा भी काम विकार हो, उसे इस मार्ग से डरकर सदा अलग ही रहना चाहिये ।
अवशय ही जो अधिकारी साधक है, उन्हें इस मार्ग में जो अतुल दिव्य आनंद है, उसकी प्राप्ति होती है ।
श्री राधिका जी की सेविकाओ की सेवा में सफल होने पर स्वयम् श्री राधा जी की सेवा का अधिकार मिलता है और श्री राधा जी की सेवा ही युगल स्वरूप् की कृपा प्राप्त करने का प्रधान उपाय है। जो ऐसा नही कर सकते उन्हें युगल स्वरूप् की प्राप्ति बहुत ही कठिन है ।
परम् श्रद्धेय श्री हनुमान प्रसाद जी ( भाई जी )👏🏻👏🏻
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