Thursday, December 1, 2016

द्वैत अद्वैत साधक भाव


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[ स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
शरणागति तत्त्व-- 2⃣
शरणागत होते ही, सबसे प्रथम अहंता परिवर्तित होती है । 'शरणागति' भाव है, कर्म नहीं । भाव और कर्म में यही भेद है कि भाव वर्तमान में ही फल देता है और कर्म भविष्य में । भावकर्ता ‘भाव’ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकता है, किन्तु कर्म संगठन से होता है । संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, क्योंकि अनेक निर्बलताओं का समूह ही वास्तव में 'संगठन' है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से, अपने से भिन्न की सहायता की खोज करना 'संगठन' है ।
शरणागति दो- प्रकार की होती है- भेदभाव की तथा अभेदभाव की । भेदभाव की शरणागति शरण्य अर्थात् प्रेमपात्र की स्वीकृति मात्र से ही हो सकती है, किन्तु अभेद-भाव की शरणागति शरण्य के यथार्थ-ज्ञान से होती है । अभेद-भाव का शरणागत, शरणागत होने से पूर्व ही निर्विषय हो जाता है, केवल लेशमात्र अहंता शेष रहती है, जो शरण्य की कृपा से निवृत्त हो जाती है । भेदभाव का शरणागत, शरणागत होते ही अहंता का परिवर्तन कर देता है अर्थात् जो अनेक का था वह एक का होकर रहता है ।
शरणागत के हृदय में यह भाव, कि मैं उनका हूँ, निरन्तर सद्भावपूर्वक रहता है । यह नियम है कि जो जिसका होता है, उसका सब कुछ उसी का होता है तथा वह निरन्तर उसी के प्यार की प्रतीक्षा करता है । प्रेमपात्र के प्यार की अग्नि ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों शरणागत की अहंता उसी प्रकार तद्रूप होती जाती है, जिस प्रकार लकड़ी अग्नि से अभिन्न होती जाती है । अहंता के समूल नष्ट होने पर भेदभाव का शरणागत भी अभेद-भाव का शरणागत हो जाता है ।
भेदभाव का शरणागत भी शरण्य से किसी भी काल में विभक्त नहीं होता, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पिता के घर भी पति से विभक्त नहीं होती ।
क्रमशः-
----- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 31) ।

Wednesday, October 26, 2016

तृणादपि सुनीचेन


( तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना)
★ महाप्रभु जी शिक्षाष्टक मे कहते है की साधक स्वयं को तृण से भी छोटा समझे--क्योकि जिस तरह धन आने पर मनुष्य को धन का मद हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को कभी कभी भजन करने का भी अहंकार हो जाता है-- वो स्वयं को भक्त ओर दुसरो को खुद से छोटा समझने लगता है--यानि भजन का अहंकार मनुष्य को हो जाता है-- ईस विषय मे महाप्रभु जी भक्तो के लिए कहते है की "तृणादपि सुनीचेन" अर्थात् खुद को तिनके से भी छोटा समझना चाहिये-- क्योकि तिनका भी अगर किसी की आंख मे चला जाए तो वो तिनका भी कष्ट देता है ईसलिए साधक खुद को तिनके से भी छोटा समझे --ओर भजन का अहंकार लेकर घुमने वाला साधक ये सोचता है की प्रभु उसकी साधना से बहुत प्रसन्न हो रहे होंगे --लेकिन साधक ये बात भूल जाता है की भगवान का प्रिय बनने के लिए अहंकार त्यागना पडता है-- भगवान गीता मे 12 अध्याय मे कहते है की जो भक्त अहंकार नही करता वो मुझे बहुत प्रिय है-- यानि भगवान उस भक्त से प्रेम करते है जो अहंकार नही करता--ईसलिए साधक के अंदर कभी भी अहंकार नही आना चाहिये-- जिस तरह वृक्ष पर फल आने पर वृक्ष झुक जाता है उसी प्रकार भजन करने वाले को भी हमेशा झुककर रहना चाहिये--किसी दुसरे साधक के भाव को देखकर द्वेष भी नही करना चाहिये क्योकि भगवान ये भी कहते है की जो दुसरो से द्वेष नही करता वो भक्त मुझे प्रिय है--भगवान भक्त मे जिस स्वभाव को देखना चाहते है वैसा अगर भक्त बन जाए तो भगवान बहुत प्रसन्न होते है-- ईसलिए "तृणादपि सुनीचेन"--क्योकि अगर भगवान प्राण वायु बंद कर दे,भोजन पचाना बंद कर दे ,तो साधक भजन कैसे कर पाएगा-- भगवान की कृपा से ही भजन होता है- ओर फिर आगे महाप्रभु जी कहते है की " तरोरपि सहिष्णुना"- अर्थात् वृक्ष से भी बढकर सहनशील बनो-- अर्थात् जैसे वृक्ष पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता है उसी प्रकार चाहे कोई भी व्यक्ति भक्त का विरोध करे या गाली दे लेकिन भक्त को सहनशील बनकर दूसरो पर करुणा ही करनी चाहिये --एक प्रसंग पुज्य गुरुदेव सुनाया करते है की एक बार एक बिच्छू पानी मे डूब रहा था तो एक संत वहां से जा रहे थे तो उन संत की दृष्टि बिच्छु पर पडी-- संत के ह्रदय मे करुणा आई ओर उन संत ने उस बिच्छु को हाथ से बाहर निकाला--जैसे ही संत ने बिच्छु को बाहर निकाला तो बिच्छू ने उस संत के हाथ पर डंक मारा ओर तुरंत फिर से वो बिच्छू पानी मे गिर गया-- संत को फिर से करुणा आई ओर उन्होने दोबारा बिच्छू को बाहर निकाला ओर बाहर निकालते ही दोबारा बिच्छू ने डंक मारा-- तो एसा जब दस -बारह बार उस संत ने किया तो एक व्यक्ति उस संत के करीब आया ओर बोला की अरे बाबा,! ये बिच्छू आपको डंक मारता जा रहा है ओर आप ईसे बचाने मे लगे हो क्यो??
तो संत ने बहुत प्यारा जबाव दिया की भैया,ईसका स्वभाव डंक मारना है ओर मेरा स्वभाव करुणा करना है-- तो जब ये अपना स्वभाव नही छोड पा रहा तो मै अपना करुणा करने का स्वभाव कैसे छोड सकता हूं-- यानि साधक को दूनियावाले चाहे कितना भी गलत बोलें या विरोध करें लेकिन साधक को किसी के प्रति भी द्वेष नही लाना चाहिये-- भगवान गीता मे कहते है की " जो मान- अपमान ,,निन्दा -स्तुति,,सुख दुख दोनो मे समान भाव रखकर विचलित नही होता वो मेरा प्रिय भक्त है-- "निर्ममो निरंहकार समदु:खसु:ख क्षमी"
क्षमी अर्थात् क्षमावान बनना है--- उसके बाद महाप्रभु जी कहते है की " अमानिना मानदेन" अर्थात् स्वयं अमानी रहकर दुसरो को सम्मान देना चाहिये-- ईसी बात को भगवान भी उद्धव से ग्यारहवें स्कंध मे कहते है की "अमानी मानद:" अर्थात् सच्चे भक्त सम्मान पाने की ईच्छा नही रखते बल्कि दुसरो का सम्मान करने की भावना भक्तो मे होती है-- श्रीचैतन्यचरितामृत मे भी कहा गया की " उत्तम हइञा वैष्णव हबे निरभिमान---
जीवे सम्मान दिबे जानि कृष्ण अधिष्ठान"-- अर्थात् जो उत्तम वैष्णव होता है वो उत्तम होने पर भी खुद को सबसे छोटा समझता है(तृणादपि सुनीचेन)- ओर सबमे कृष्ण बैठे है ईसलिए ये भावना रखकर भक्त दुसरो का सम्मान भी करता है-- ईसलिए महाप्रभु जी कहते है की साधको मे ये चार गुण अवश्य होने चाहिये-- "तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना--
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:"- अर्थात् खुद को तृण से भी छोटा समझे,,वृक्ष से भी बढकर सहनशील बने ,स्वयं अमानी रहे ,ओर दुसरो का सम्मान करते हूए सदा हरि का कीर्तन करता रहे-- बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-- सद्गुरुदेव भगवान की जय-- जय जय श्री राधे 

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श्री वृंदावन दर्शन कैसे करें


 *श्री वृंदावन दर्शन कैसे करें* 
 प्राय जितने भी वैष्णव जन हैं, वह वर्ष में एक, दो, चार, दस बार वृंदावन आते ही हैं ।
 वृंदावन आने की भी शास्त्रीय रीति है कि बहुत अधिक भीड़ अपने साथ नहीं लानी चाहिए, नहीं तो उस भीड़ में शामिल लोगों की देखरेख में ही वृत्ति लगी रहती है, एकाग्रता नहीं बन पाती ।
 अतः कोशिश करें कम लोग या छोटे ग्रुप में ही वृंदावन आएं ।
 हर बार जब आप आएं तो एक या दो नए मंदिर, नए संत, नये वैष्णव से अवश्य मिले ।
 आना, बिहारी जी के, श्री राधा रमण जी, इस्कॉन के दर्शन करना लस्सी पीना, टिक्की खाना, हर बार यही करते-करते वैसा ही है जैसे अनेक साल से कक्षा तीन में ही पड़े रहना ।
 यह भी बहुत अच्छा है लेकिन और आगे भी बढ़ना चाहिए । वृंदावन आने पर , यदि आप दीक्षित हैं तो अपने गुरुदेव के स्थान पर अवश्य जाकर प्रणाम करना चाहिए । गुरुदेव विराजमान हैं तो भी, नहीं है तो भी, बाहर गए हैं तो भी ।
 आप जिस संप्रदाय से दीक्षित हैं उस संप्रदाय के अपने मुख्य देवालय के दर्शन अवश्य करने चाहिए ।
 राधावल्लभ संप्रदायी को राधा वल्लभ जी के
 निंबार्क संप्रदायी को बिहारी जी के
 गौड़ीय संप्रदायी को गौड़ीय संप्रदाय के
 सप्त देवालयों के दर्शन अवश्य करने चाहिए ।
 श्रृंगार वट
 सप्त देवालयों के साथ-साथ श्री नित्यानंद प्रभु का स्थान श्रृंगार वट के भी दर्शन अवश्य करनी चाहिए । रासलीला में यहीं श्री राधारानी का श्रृंगार किया है श्रीकृष्ण ने ।
 चीर घाट पर वृन्दाबन की परिक्रमा करते समय सीधे हाथ पर विशाल जीर्ण। शीर्ण सा प्राचीन स्थान है श्रृंगार वट ।
 गौड़ीय संप्रदाय के सप्त देवालय इस प्रकार हैं एक ही बार में यदि सभी दर्शन करने का अवसर न मिले तो, दो इस बार, दो अगली बार, दो अगली बार इस प्रकार से सातों देवालयों के दर्शन अवश्य ही करनी चाहिए । वह सप्त देवालय हैं
 श्री गोविंद देव जी
 श्री गोपीनाथ जी
 श्री मदन मोहन जी
 श्री राधारमण जी
 श्री गोकुल आनंद जी
 श्री राधा दामोदर जी
 श्री राधा श्यामसुंदर जी
 और इन सबसे आवश्यक श्रीनित्यानंद प्रभु का स्थान श्री राधारानी श्रृंगार स्थली श्री श्रृंगार वट ।
 धाम में आकर यथासंभव संतो के दर्शन और उनकी स्वविवेक से ऐसी सेवा भी करनी चाहिए जिससे उनकी भजन में वृद्धि हो । बाधा ना हो ।
 मंदिरों म भी उन मन्दिरों की सेवा करनी चाहिए जहाँ आवश्यकता है । जहाँ प्रचुर मात्रा म धन है । हम लोग अधिकतर वहीँ देते हैं ।
 यदि अनुकूलता हो तो भजन के संक्षिप्त प्रश्न भी पूछने चाहिए । वैष्णव कृपा, नाम कृपा से भक्ति में वृद्धि होती है और भक्ति में वृद्धि होते होते अंततः मानव जीवन का लक्ष्य श्रीकृष्ण चरण सेवा प्राप्त होती है । श्री कृष्ण चरण सेवा ही मानव का परम चरम लक्ष्य है ।
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 


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Friday, October 21, 2016

मानव देह की महिमा

श्री राधे--( मानव देह की महिमा)
★ किसी वस्तु की महिमा पता चल जाये तो मनुष्य की उसमे प्रीति बढ जाती है-उदाहरण के लिए जैसे मान लो कहीं पारसमणि पडी हो ओर मनुष्य उसे साधारण पत्थर समझकर उसको महत्व ना दे तो उसकी पारसमणि मे प्रीति नही होगी ओर अगर कोई दुसरा व्यक्ति आकर उसे ये बोल दे की ये पत्थर नही पारसमणि है तो उस व्यक्ति की दृष्टि बदल जाती है ओर फिर वो पारसमणि के प्रति आकर्षित हो जाता है --यानि जब तक पारसमणि के विषय मे ज्ञान नही था तब तक पारसमणि के प्रति उसका आकर्षण नही था लेकिन जब पारसमणि की महिमा पता चली तो आकर्षण हो गया-- उसी प्रकार से मनुष्य ईस मानव देह को सामान्य समझकर ईसको महत्व नही देता ओर थोडा सा दूख आने पर ईस देह को खत्म करने चल पडता है-- लेकिन अगर मानव ये जान ले की ईस मानव देह की क्या महिमा है तो मनुष्य कभी भी ईसको नष्ट करने के विषय मे नही सोचेगा-- ईसलिए ईस देह की महिमा को जानना बहुत अनिवार्य है-- भागवत के प्रति श्रद्धा बढे ईसलिए पहले माहात्म सुनाया जाता है उसी प्रकार ईस देह की महिमा जानने पर मनुष्य ईस देह का फिर सदुपयोग करने लगता है-- पुज्य गुरुदेव मानव देह की महिमा को बताते हुए मानस का एक प्रसंग सुनाया करते है की मानस मे प्रसंग आता है की गरुड जी ने काकभुशुण्डि जी से प्रश्न किया की सबसे दुर्लभ शरीर कौनसा है?? तो काकभुशुण्डि जी ने कहा की--" नर तन सम नहि कवनिउ देहि,जीव चराचर याचत तेही"- अर्थात् मनुष्य तन के समान कोई दुसरा तन नही है-- चर-अचर सब जीव ईस मानव देह की याचना करते है-- आखिर क्यो?? ईसका एक कारण है की प्रत्येक जीव आनंद चाहता है ओर वो आनंद केवल भगवान की भक्ति से मिलेगा ओर भगवान की भक्ति केवल मनुष्य तन को पाकर ही की जा सकती है ईसलिए सब मनुष्य तन को चाहते है--यहां तक की देवतालोग भी ईस मानव देह को चाहते है-- नारद पुराण मे लिखा है की " दूर्लभं मानुषं जन्म प्रार्थ्यते त्रिदशैरपि"- देवतालोग भी ईस मानव देह को चाहते है-- आखिर क्यो?? देवताओ के स्वर्गलोक मे तो कल्पवृक्ष है ,,पृथ्वीलोक से भी ज्यादा अच्छे अच्छे भोग स्वर्गलोक मे है तो फिर भी देवतालोग मानव देह चाहते है --क्यो?? ईसका भी कारण है की आनंद भोगो मे नही है-- " विमुख राम सुख पाव न कोई"-- भगवान से विमुख होकर किसी को आनंद नही मिल सकता-- ईसलिए देवतालोग भी बेचारे अशांत रहते है-- ईंद्र देवता अशांत रहता है ,,स्वर्ग की सीट छीन जाने का ईंद्र देवता को डर बना रहता है -- स्वर्ग मे भी माया है ओर जब तक माया रहेगी तब तक दुख रहेगा ओर माया केवल भक्ति से दूर होगी ओर वो भक्ति केवल मनुष्य देह मे हो सकती है-- तो जरा सोचिये की जिस देह को देवतालोग भी चाहते है उसको मनुष्य थोडे से दुख आने पर नष्ट करने चल पडता है-- एसा करना बहुत बडा अपराध है-- दूख हमे बिगाडने नही बल्कि बनाने आता है-- मिट्टी को अगर आग मे नही डाला जाएगा तो वो ईंट नही बनेगी -- ईंट बनाने के लिए उसे आग मे तपाना पडेगा -- ईसलिए दुखो से हारना नही बल्कि डटकर सामना करना है ओर हंसते हुए रहना है-- भगवान राम ,कृष्ण के जीवन मे भी बहुत विपरीत परिस्थितियां आयी लेकिन भगवान हमेशा मुस्कुराते रहते थे -- अगर कोई मनुष्य पहाड को देखकर पहले से ही हार मान ले की अरे नही मै ईस पहाड पर नही चढूंगा तो वो पहाड पर कभी नही चढ पायेगा -लेकिन अगर कोई हिम्मत करे तो वो पहाड की चोटी पर पहुंच सकता है उसी प्रकार दुख आने पर उनसे डरकर हारना नही बल्कि सामना करते हुए आगे बढना है - ईसलिए ईस मनुष्य देह की बहुत महिमा है-- उत्तरकाण्ड मे लिखा है की " बडे भाग मानुष तन पावा ,सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा"-- ये मनुष्य तन बहुत बडे भाग्य से मिला है ,,सुर अर्थात् देवताओ के लिए भी ये मानव तन दुर्लभ है -- भागवत मे भी कहा गया की " दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर:"-- तो सब बातो का सार केवल ईतना है की प्रत्येक व्यक्ति आनंद चाहता है ओर वो आनंद तब मिलेगा जब भगवान के प्रति शरणागति होगी ---ओर शरणागति केवल मनुष्य तन पाकर हो सकती है--मनुष्य तन को व्यर्थ मे खोने वालो के लिए कठोपनिषद मे कहा गया की- " तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते"-- अर्थात् अगर मनुष्य अपनी देह को व्यर्थ मे बर्बाद कर देता है या सारा जीवन संसार मे मन लगाकर रखता है तो उसे कईं कल्पो तक ये देह मिलना मुश्किल है--यानि बहूत बार 84 लाख योनि मे जीव घुमता रहेगा --उसके बाद भी कभी प्रभु कृपा करके ही ये मानव देह देंगे-- " कबहूंक करि करुणा नर देहि "-- ईसलिए ईस मानव देह को व्यर्थ मे बर्बाद नही करना है-- उत्तरकाण्ड मे आता है की " नर तन पाई विषय मन देहि ,पलटि सुधा ते सठ विष लेहि"- अर्थात् जो मनुष्य तन पाकर भी अपना मन संसार के विषयो मे लगाकर रखता है उसे अमृत नही बल्कि विष मिलता है क्योकि आनंद भोगो मे आसक्ति रखने से नही मिलता बल्कि आनंद तो भगवान के मार्ग पर चलने से मिलता है " रघुपति भक्ति बिना सुख नाहि"-- (कोई तन दुखी तो कोई मन दुखी तो कोई धन बिन रहत उदास--थोडे थोडे सब दुखी ,सुखी राम के दास-)"-
काकभुशुण्डी जी भी कहते है की " सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर-- होहिं विषय रत मंद मंद तर--
कांच किरिच बदले ते लेहीं-- कर ते डारि परस मनि देहीं--"- अर्थात् नर तन पाकर भी जो मनुष्य प्रभु का भजन नही करता ओर संसारिक विषयो मे आसक्त रहता है उसे कभी आनंद नही मिल सकता-- पुज्य गुरुदेव कहा करते है की ये बात अच्छी तरह जीव को समझ लेनी चाहिये की संसार का चाहे सारा सामान भी जीव को मिल जाये लेकिन फिर भी भक्ति के बिना सुख नही मिलेगा-- संसार का सुख उस सब्जी की तरह है जिस सब्जी मे नमक ना हो -- नमक के बिना सब्जी अच्छी नही लगती उसी प्रकार संसार का सुख भी भक्ति के बिना फीका है-- मनुष्य चाहे कितना भी संसार प्राप्त कर ले --लेकिन भक्ति से रहित मनुष्य हमेशा अशांत रहेगा ,दुखी रहेगा-- ईसलिए ईस मानव देह का सदुपयोग भजन करने मे करना है--क्योकि हम भगवान के अंश है ओर भगवान हमारे सब कुछ है- बोलिए राधा रानी की जय
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श्रीश्री युगलसरकार का दिव्य प्रेम कैसे प्राप्त हो ?

दिव्य प्रेम राज्य की साधना का आरम्भ कैसे होता है
दम्भ, द्रोह, द्वेष, काम, लोभ और विषयासक्ति के त्याग से ही इस प्रेम मार्ग की साधना आरम्भ होती है । जिन महापुरुषो में दम्भादि छः दोष है और जो विषयो में आसक्त है अर्थात जिनका मन सुंदर रूप, बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ, मनोहर गंध, कोमल स्पर्श और सुरीले गायन पर रीझा रहता है, वे इस मार्ग पर नही चल सकते ।
त्यागी विरागी महज्जन ही इस प्रेमपथ के पथिक हो सकते है; क्योकि इस उपासना में दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश करना पड़ता है और वहा बिना गोपी भाव को प्राप्त किये किसी का प्रवेश हो नही सकता । एवं गोपी भाव की प्राप्ति विषयासक्त पुरुष को कदापि होनी सम्भव नही ।
जो विषय लोलुप भी है और अपने को श्री राधाकृष्ण का प्रेमी बतलाते है, वे या तो स्वयम् धोखे में है अथवा जान या अनजान में जगत को धोखा देना चाहते है ।
उपर्युक्त छः दोषो से बचकर और विषयासक्ति को त्यागकर निम्नलिखित रूप में साधना करनी चाहिये:
1) अपने को श्री राधा जी की अनुचरियो में एक तुच्छ अनुचरी मानना ।
2) श्री राधा जी की सेविकाओ की सेवा में ही अपना परम् कल्याण समझना ।
3) सदा यही भावना करते रहना की मै भगवान् की प्रियतमा श्री राधा जी की दसियों की दासी बनी रहूँ और श्री राधा कृष्ण के मिलन साधन के लिये विशेष रूप से यत्न कर सकूँ।
यह बहुत ही रहस्य का विषय है । इसलिये इस विषय को विशेष रूप से लिखना अनुचित है । इस मार्ग पर पैर रखना आग पर खेलना है । जो बिना इसका रहस्य समझे इस पथ में प्रवेश करना चाहता है, वह गिर जाता है ।
जिसके हृदय में तनिक सा भी काम विकार हो, उसे इस मार्ग से डरकर सदा अलग ही रहना चाहिये ।
अवशय ही जो अधिकारी साधक है, उन्हें इस मार्ग में जो अतुल दिव्य आनंद है, उसकी प्राप्ति होती है ।
श्री राधिका जी की सेविकाओ की सेवा में सफल होने पर स्वयम् श्री राधा जी की सेवा का अधिकार मिलता है और श्री राधा जी की सेवा ही युगल स्वरूप् की कृपा प्राप्त करने का प्रधान उपाय है। जो ऐसा नही कर सकते उन्हें युगल स्वरूप् की प्राप्ति बहुत ही कठिन है ।
परम् श्रद्धेय श्री हनुमान प्रसाद जी ( भाई जी )👏🏻👏🏻

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माधुर्य रस भाव

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माधुर्य-रस में स्वकीया परकीया भाव

भगवत सम्बन्धी रसो में प्रधान पाँच रस होते है-
"शांत", "दास्य", "सख्य", "वात्सल्य" और "माधुर्य". इसमें सबसे श्रेष्ठ माधुर्य भाव है .
माधुर्य भाव के दो प्रकार होते है - "स्वकीया-भाव" और "परकीया-भाव".
1.स्वकीया-भाव- अपनी स्त्री के साथ विवाहित पति का जो प्रेम होता है उसे स्वकीया भाव कहते है.
2. परकीया-भाव - किसी अन्य स्त्री के साथ जो परपुरुष का प्रेम सम्बन्ध होता है उसे परकीया भाव कहते है.
लौकिक (सांसारिक प्रेम ) में इन्द्रिय सुख की प्रधानता होने के कारण परकीया-भाव, पाप है, घृणित है. अतः सर्वथा त्याज्य है.क्योकि लौकिक परकीया भाव में अंग-संग की घृणित कामना है. परन्तु भागवत प्रेम के दिव्य कान्तभाव में, परकीयाभाव स्वकीया-भाव से कही श्रेष्ठ है. क्योकि इसमें अंग-संग या इन्दिय सुख की कोई आकांक्षा नहीं है.
स्वकीया में, पतिव्रता पत्नी अपना नाम, गोत्र, मन, प्राण, धन, धर्म, लोक, परलोक, सभी कुछ पति को अपर्ण करके जीवन का प्रत्येक क्षण पति की सेवा में ही बिताती है. परन्तु उसमें चार बातो की परकीया की अपेक्षा कमी होती है.
1. प्रियतम का निरंतर चिंतन.
2. मिलन की अत्यंत उत्कट उत्कंठा.
3. प्रियतम में किसी प्रकार का दोष न देखना.
4. कुछ भी न चाहना.
परकीया में ये चार बाते निरंतर एक साथ निवास करती है,इसलिए परकीया भाव श्रेष्ठ है. भगवान से नित्य मिलन का अभाव न होने पर भी परकीया भाव की प्रधानता के कारण गोपियों को भगवान का क्षण भर का अदर्शन भी असह होता है.
वे प्रत्येक काम करते समय निरंतर कृष्ण का चिंतन करती थी.श्री कृष्ण की प्रत्येक क्रिया उन्हें ऐसी दिव्य गुणमयी दीखती थी कि एक क्षण भर के लिए भी उनसे उनका चित् हटाये नहीं हटाता था एक बात धयान रखनी चाहिये कि यह परकीया भाव केवल व्रज में है अर्थात लौकिक विषय वासना से सर्वथा विमुक्त दिव्य प्रेम राज्य में ही संभव है.
इसलिए चैतन्य मह्प्रभु ने कहा है -
"परकीया भावे अति रसेर उल्लास,
व्रज बिना इहार अन्यत्र नाही वास "
अर्थात - सर्वाच्च मधुर रस के उच्चतम परकीया भाव का उल्लास व्रज को (अर्थात दिव्यप्रेम राज्य को छोड़कर)अन्यत्र कही भी नही होता.
श्री राधा स्वकीय थी या परकीया यह एक व्यर्थ का प्रश्न है क्योकि जब श्री कृष्ण और राधा स्वरुप नित्य अभिन्न एक ही तत्व है तब उनमे अपने पराये के कल्पना कैसी ?जैसे भगवान निराकार भी है और साकार भी है और उन दोनों से परे भी है उसी प्रकार राधा जी स्वकीय भी और परकीया भी है और दोनों से परे भी है.
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स्वकीय परकीया भाव
'उज्ज्वल नीलमणि' के 'कृष्णवल्लभा' अध्याय के अनुसार कृष्णवल्लभाओं को दो भागो में बाँटा गया है.
१. - स्वकीया और
२. - परकीया
स्वकीय गोपियाँ -
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्ण की विवाहिता पत्नियाँ स्वकीया हैं तथा उनकी प्रेयसी गोपियाँ परकीया हैं।
परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है।
परकीया गोपियाँ-
"कन्या" और "परोढा" दो प्रकार की हैं।
कन्या - अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं।
परोढा - प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है।परोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं- "नित्यप्रिया", "साधन-परा" और "देवी".
अ) नित्य प्रिया - जो गोपियाँ नित्यकाल के लिए नित्य वृन्दावन में श्रीकृष्ण के लीला-परिकर की अंग हैं, वे नित्यप्रिया हैं। ये वस्तुत: वे भक्त जीव हैं, जिन्होंने प्रेम-भक्ति के द्वारा भगवत्-स्वरूप में प्रवेश पा लिया है और जो नित्यसिद्ध गोपी-देह से उनकी लीला के अभिन्न अंग बन गये हैं।
नित्यप्रिया गोपियों को "प्राचीना" भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है।
ब ) साधना-परा गोपियाँ- दो प्रकार की हैं।"यौथिकी" , "अयौथिकी"
१. यौथिकी - अपने गणके साथ प्रेम-साधना में संलग्न रहती हैं।
यौथिकी पुन: दो प्रकार की होती हैं- "मुनि" और "उपनिषद्"
पौराणिक प्रमाणों के अनुसार अनेक*मुनिगण - जो कृष्ण के माधुर्यरूप का आस्वादन लेने के लिए गोपी-भावकी आकांक्षा करते हैं, गोपियों का जनम पाकर कृष्णकी ब्रजलीला में सम्मिलित होने का सौभाग्य लाभ करते हैं। ये ही मुनि-यूथकी गोपियाँ हैं।
*उपनिषद- यूथ की गोपियाँ पूर्वजन्म के उपनिषदगण हैं, जिन्होंने तपस्या करके ब्रज में गोपी रूप पाया है.
२ . अयौथिकी - गोपियों का रूप उन कृपाप्राप्त जीवों को मिलता है, जो गोपी-भाव से भगवान् कृष्ण के प्रेम में रत रहते हैं और अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद गोपीरूप पाते हैं ये अयौथिकी गोपियाँ "नवीना" भी कहलाती हैं और इन्हें भक्ति के फलस्वरूप प्राचीना नित्यप्रिया गोपियों के साथ सालोक्य प्राप्ति होती है।
स ) देवी - उन गोपियों का नाम है, जो नित्यप्रियाओं के अशं से श्रीकृष्ण के सन्तोष के लिए उस समय देवी के रूप में जन्म लेती हैं, जब स्वयं श्रीकृष्ण देवयोनि में अंशावतार धारण करते हैं। उपर्युक्त कन्या गोपियाँ ये ही देवियाँ हैं जो नित्यप्रियाओं की परम प्रिय सखियों का पद पाती हैं।
नित्यप्रिया गोपियों में आठ प्रधान गोपियाँ यूथेश्वरी होती है। प्रत्येक यूथ में यूथेश्वरी गोपी के भावकी असंख्य गोपियाँ होती हैं। राधा और चन्द्रावली सर्वप्रधान यूथेश्वरी गोपियाँ हैं। इनमें भी राधा सर्वश्रेष्ठ-महाभाव-स्वरूपा हैं।
रूपगोस्वामी के अनुसार ये सुष्ठुकान्तस्वरूपा, धृतषोडश-श्रृगांरा और द्वाद्वशा भरणाश्रिता हैं उनके अनन्त गुण हैं।
जय जय श्री राधे

Monday, October 17, 2016

The Place of Women in the Bhakti Movement

Copied from:  https://www.jiva.org/the-place-of-women-in-the-bhakti-movement/
Question:  I personally appreciate the role of women within thebhakti movement in general and within the Vaiṣṇavism in particular. But sometimes I wonder where is the living spirit of Jāhnavā Mātā, now? Currently, who is the most representativegurvī in Gauḍīya Vaiṣṇavism?
Answer: Why limit this question only to Jāhnavā Mātā? Where is the living spirit of Nityananda? Give me a living example.
Go and see in the temple who is doing more service, the women or the men. There you will see the living spirit of Jāhnavā Mātā.
Question: I don’t think there is any Gauḍīya Vaiṣṇava branch striving to investigate, remember or revive her legacy.  How does the figure of a sublime female leader disappear without leaving clear traces of her passage through this world? Is it fate that Vaiṣṇavism will be marked only by the fevered male preaching from now on?
Is there any female ācārya in the bābājī-paramparā? How many gurvīs exist in its disciplic succession? Throughout the world, the leadership of religious institutions almost always oozes androgens. It is a harsh reality.
Answer: In our own disciplic succession there are four woman acaryas. Women usually don’t take to the renounced order of life because it is not very suitable for their psychology. The nature of men and women is different. After the Women’s Liberation movement, both men and women want to erase this distinction. This is what they think is the meaning of equality. However equality is not at the level of body and mind. Obviously the male body and mind are different from the female. I am sure you know that the body is the gross manifestation of the subtle mind.
There is no restriction for a male or female to attain the ultimate goal of life, but one must use the mind-body complex one has at present. This is one of the essential teachings of BG which people often miss.
There is no question whether women become guru or not, or whether they have the adhikara to become a pure devotee of the Lord.
Somehow at present we think that if a woman does the same as a man and competes with a man, she is equal to him. I consider this as the basic flaw in the woman liberation movement. I agree that when it comes to certain legal issues, such as voting rights or getting the same salary for the same job, there should be equality in that. But because men join the army, should women also do that? Will that be the emancipation of women? To me that is a misconception. In the history there may be examples of some very chivalrous ladies who fought wars, leading big armies, but that is not suitable to the nature of most women.
Similarly, there may be examples of women becoming great acaryas, having disciples, but it is not really the nature of a prototype woman. At present women may be more like men because of the idea of competing with men in every field, and thus they may also desire to be acaryas, but then they also have to have the requisite qualification for that.
In India, at present there are many female gurus. Amritananda Mayi is one well-known example. So in Gaudiya Vaishnavism also, if there is some illustrious woman, no one should oppose her. In Vrindavan there are many ladies who are giving Bhagavata kathas like any man and they are very popular. Even young girls are taking to this profession. One example is Devi Citralekha. She is a young girl in her teens and has a big following. In fact at present her Bhagavat saptaha is going on in Foglashrama in Vrindavan.
Another example is Sadhvi Ritambara, who has probably the biggest ashram in the Vrindavan area, called Vatsalya-grama.
In the past there were not so many examples, so you have only quoted two names.  Probably there are more now than at that time.
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Question: Is celibacy also meant for Women?
woman with tulasi plantAnswer: Celibacy is called brahmacarya in Sanskrit. Originally the word refers to a student who studies the Vedas under the guidance of a guru. During the study period, one was expected not to have any sexual relation, because it is a distraction for the mind, and such distraction makes the mind incapable of understanding. Originally, boys and girls both studied the Veda together. There is a verse which says,
pura kalpe tu narinām maunji bandhanam isyate,
adyapanam ca vedanam savitri vacanam tatha
Harita Smrti
This means women also lived like brahmacari boys and studied the Vedas, but later on, this practice was stopped and girl stayed at home and studied there. The exact reason why this changed is not known, but my guess is that it is probably related to the curse of Indra. In any case, a girl, whether she studied at the gurukula or remained at home, was expected to remain celibate like the brahmacari students. This is also understood from the following statement of the Atharvaveda 5.18:
brahmacaryena kanya yuvanam vindate pathim
“An unmarried celibate girl seeks a young husband.” After the girl was married, she was expected to have sexual relationship only with the husband and this was also considered as beingbrahmacari, or celibate. There is a very popular verse in India,
ahalya draupadi sita tara mandodari tatha
pancha kanya smaret nityam mahapathaka nasinīḥ
“One should remember every day the five virgins, namely Ahalya, Draupadi, Sita, Tara, and Mandodary. Remembering them destroys one’s sins.”
All the five women were married, in fact Draupadi had five husbands, but they had been referred to here as virgin, kanya, because they were chaste wives.
Ayurveda says there are three pillars of heath, upastambha, according to Caraka Samhita, namely food, sleep, and celibacy. While mentioning these three, Caraka Samhita does not say that this is only for men and not for women, nor does it say that a woman’s health only depends on the first two. Moreover, if men are supposed to be celibate and not women, with whom should they have sex? I don’t think I want to speculate on this.